منگل، 6 اگست، 2013

Mushfiq Bhai

मुश्फ़िक़ भाई



बन्दा रज़ाई में पड़े पड़े अभी यह सोच ही रहा था कि अब उठूँ कि तब उठूँ। क्यों कि सूरज की नन्हीं किरणों को अभी अंधेरे पर विजय प्राप्त नहीं हुई थी। कहीं दूर से मोर के बोलने की आवाज़ें आ रही थीं कि इतने मेरे बाज़ू वाले कमरे का दरवाज़ा धड़ाक से खुला। मैं समझ गया कि लग रहा है मुश्फ़िक़ भाई निकले हैं। इकहरा बदन, निकलता हुआ क़द, शरीर कमान की शक्ल अख्तियार करता हुआ, जिसके कारण हाथ घुटनों तक पहुंचते हुए, माथे पर अनगिनत शिकनें, आंखें ऐसी कि लोग आंखें चार से करने से घबराएँ। नाक तोते की तरह, बालों में मेंहदी, दाढ़ी सलीके़ से तराशी हुई, कान गांधी जी की तरह, स्वभाव इतना विनम्र और गंभीर कि शायद ही किसी ने कभी हँसता हुआ देखा हो। तबीयत में स्नेह  और नम्रता कूट कूट कर भरी हुई है। बज़ाहिर हर किसी से तपाक से मिलते हैं लेकिन दिल से कुछ ही लोगों से मिलते हैं। ज़हन में हर समय एक तरह का ख़ुमारतबीयत से सरशार, मज़हब से बेज़ार, सोने में ऐसे ताक़ हैं कि सुना है कि कुंभकरण एक रात ख़ाब में आकर हाथ जोड़कर विनती कर रहा था कि हुज़ूर मेरी लाज रखिये वरना ज़माना मुझे भुला कर आपकी मिसालें देने लगेगा। उर्दू के आशिक़, अंग्रेजी के शैदाई, बज़ाहिर सूफी मनिश पर अंदर से तजद्दुद परस्त(आधुनिकतावादी) हैं। आमतौर पर नमाज़ रोज़े की पाबन्दी करते हैं लेकिन अक्सर लोग उनके इस वाक्य ''औरतों ने दुपट्टा कब का फेंक दिया मगर मौलाना हैं कि टोपी से चिपके हुए हैं और I hate Lungi, I hate Pyjama and I hate the tendencies of Maulana'' से उनकी मज़्हबियत को मशकूक नज़र से देखते हैं। लिबास के मामले में उनके ख़याल कुछ अजी़ब व ग़रीब क़िस्म के हैं। कहते हैं कि भारतीय आबादी को बढ़ाने में सबसे ज़्यादा क़ुसूर लुंगी का है। शायद इसी लिए नेक्कर और जीन्स ही पसंद ख़ातिर हैं। शराफ़त, नफ़ासत में अपनी मिसाल आप हैं। जिसकी मिसाल कम से कम इस सदी में तो मिलना मुश्किल ही है।

हजारों साल नर्गिस अपनी बे नूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा

हालांकि बुज़ुर्गवार मुझसे एक ही साल सीनियर हैं, लेकिन उनकी उर्दूदानी और ज़बानदानी के कारण ख़ाकसार ने उन्हें अपना उस्ताद मान लिया है लेकिन उन्होंने ने अपनी सादगी और शरीफुन्नफ़्सी (ज़ाहिरी) की वजह से ख़ुद को कभी उस्ताद नहीं गर्दाना जिस तरह ''इक्लव्य'' ने द्रोणाचार्य को अपना उस्ताद माना था, उसी तरह राक़िम भी उन्हें अपना उस्ताद तस्लीम करता है। चूंकि मैं उनका इकलौता शागिर्दे रशीद हूँ, इसलिए उनकी शराफ़त की क़सम खाने से कभी नहीं झिझकता। उन का ज़ौक़े नफ़ासत इतना बुलंद है कि अगर वाजिद अली शाह आज ज़िंदा होते और उस्ताद की नफ़ासत की ख़बर सुनते तो अपनी रियासत उन्हें सौंप कर ख़ुद किसी ख़ान्क़ाह में जाकर किसी पीर के मुरीद बन जाते। इस सिलसिले में उनकी नफ़ासत की सिर्फ़ एक मिसाल पेश करना चाहता हूं। और फलों की क्या बात है? उनकी तबीयत अंगूर खाने पर भी तब तक माइल नहीं होती जब तक कि उसके छिलके न उतार दिये जाएं। अब आप ख़ुद ही अंदाज़ा करें कि वह मेदा जो अंगूर के छिलकों को बर्दाश्त नहीं कर सकता, दूसरी खाने पीने की चीज़ों को कैसे बर्दाश्त कर सकता है? यही कारण है कि हकीमों और वैद्यों से उनका अपरिहार्य क़िस्म का रिश्ता बन गया है। जिसकी वजह से उनके कमरे (बक़ौल उस्ताद: ग़ुर्फ़ए अतहर) पर जो भी हाज़िर होता है, उसकी निगाह सबसे पहले सामने रखे गिटार, स के दाईं तरफ़ तानपूरा और अंत में मेज़ पर आरास्ता शीशियों, बोतलों और माजून के डिब्बों पर केंद्रित हो जाती है और ग़ुर्फ़ए अतहर पर हाज़िर होने वाला उन्हें ह़कीम पहले, छात्र बाद में तसलीम करता है और चकित होकर पूछा करता है कि आप हिकमत करते हैं? जवाब बड़ी मतानत से (काफी विचार विमर्श के बाद। इस बीच चेहरे पर कई रंग आते जाते दिखाई देते हैं) नहीं भाई! यह सब ख़ाकसार की दवाएँ हैं, यह न हों तो ज़िन्दगी अजीरन हो जाए।

उस्ताद की तबीयत में फुर्ती कुछ इस तरह घुस गई है कि अच्छे अच्छों के संभाले नहीं संभलती। इसकी मिसाल यूं समझिये कि अज़ान हो रही है और मोहतरम ने वुज़ू करना शुरू कर दिया है तो यक़ीन जानिये कि जब आप नमाज़ पढ़ कर बाहर निकलेंगे और आपकी निगाह जब उन पर पड़ेगी तो आप यह देखकर हैरान रह जाएंगे कि वह अभी मसह़ कर रहे हैं। इसी फुर्ती के कारण कई बार ट्रेन छूट गई, बस निकल गई, परीक्षा में लेट हो गए। अभी पाँच ही चीस्ताँ(रीज़निंग) हल किये थे कि ढाई घंटे पूरे हो गए लेकिन बक़ौल ग़ालिब 'वफ़ादारी बशर्ते उस्तवारी अस्ल ईमाँ है' का लेहाज़ करते हुए आज भी उसी शैली को सीने से लगाए हुए हैं।

छात्रावास में पानी सुबह और शाम सात बजे से नौ बजे तक ही आता है, जिसके कारण उन्होंने अपने लिए छात्रावास में एक स्नान गृह सुरक्षित कर रखा है। इस स्नान घर में किसी की क्या मजाल कि क़दम रख दे। इसके बावजूद कभी कभी उन्हें यह शिकायत रहती है कि पानी इतनी जल्दी क्यों चला जाता है। एक बार की घटना है कि एक साहब स्नान के लिए तशरीफ़ लाए तो देखा कि अंदर के दोनों स्नान घरों के सामने पांच पांच बाल्टियाँ क़तार में हैं, जबकि बाहर के स्नान घर के लिए कोई क़तार नहीं है। उन्होंने ने झट से अपनी बाल्टी वहीं रख दी। इतने में उन्हें न जाने क्या ख़याल आया कि वहाँ पहले से मौजूद लोगों से उन्होंने पूछा कि इस बाथरूम में कौन है? और जैसे ही लोगों ने बताया कि मुश्फ़िक़ साह़ब हैं तो उन्होंने ने जितनी फुर्ती से बाल्टी रखी थी, उससे दो गुना फुर्ती से वहाँ से भागते हुए अंदर छठे स्थान पर अपनी बाल्टी लगा दी और कहा कि ''यहां तो नंबर आ भी सकता है लेकिन वहाँ तो कभी नहीं आ सकता''

उस्ताद को आज तक किसी ने बिना अख़बार के दीर्घशंका के लिए जाते हुए नहीं देखा है। उनकी यह ह़रकत देखकर उनके ही एक सहपाठी ने उस व्यक्ति के लिए एक किलो क़लाक़न्द का इनाम रख दिया कि जो व्यक्ति मुश्फ़िक़ को बिना अख़बार के toilet जाते हुए देख ले उनसे आकर एक किलो क़लाक़न्द का इनाम ले जाए लेकिन उनकी शराफ़त देखिए कि जान बूझकर भी कभी ऐसा नहीं किया कि उन साह़ब के एक किलो क़लाक़न्द के पैसे उनके कारण व्यर्थ हो जाएंगे। अगर हमें अपने किसी काम से ह़ुज़ूर को कहीं साथ ले जाना हो और वह यह फ़रमा दें कि कल सुबह 9 बजे हर हाल में बस पकड़ लेनी है तो यक़ीन जानिये कि आप इंतेजार करके, थक हार कर जब उनके ग़ुर्फ़ए अतहर पर ग्यारह बजे दस्तक देंगे तो देखेंगे कि उस्ताद अभी आराम फ़रमा रहे हैं और बहाना होगा कि ''क्या बताऊँ आंख तो सुबह सात बजे ही खुल गई थी लेकिन कमख़ाबी के चिकित्सकीय पहलुओं को ध्यान में रखते हुए फिर सो गया'' हमारे नज़दीक उनके यह काम सुस्ती के हो सकते हैं लेकिन उनका मानना ​​है कि इतने कम वक़्त में कोई इतने काम कैसे कर सकता है? विशेष रूप से भोर के समय उठने वाले लोगों से उन्हें मानसिक दुश्मनी है और ऐसे लोगों को दिल ही दिल में लानत मलामत करते रहते हैं। इस संबंध में उनका कथन ​​है कि शोरफ़ा के नज़दीक यह काम कभी भी पसंदे ख़ातिर नहीं रहा और वैसे भी भोर में उठना कौओं का काम है शरीफ़ों का नहीं।

उर्दू के इस क़दर आशिक़ और शैदाई हैं कि आम शब्दों या बक़ौल उस्ताद बाज़ारू शब्दों का प्रयोग कभी नहीं करते और दूसरों को भी बाज़ारू शब्दों से बचने की हिदायत गाहे गाहे दिया करते हैं। आप इस एक घटना से उनकी ज़बान्दानी का अंदाज़ा कर सकते हैं कि एक बार उनके एक दोस्त आबाई वतन से किसी काम से दिल्ली आए हुए थे। अगले दिन जब वह अपने काम से विश्वविद्यालय से बाहर जाने लगे तो उनसे निवेदन किया कि मुश्फ़िक़ भाई मैं बाहर जा रहा हूँ, हो सकता है मेरे आने में देर हो जाए, इसलिए कृपा करके आप मेरा खाना रखवा दीजियेगा। जब वह साहब लौटकर आए तो देखा कि कमरा बंद है और दरवाज़े की कुंडी में एक पर्ची लगी हुई है, जिसमें लिखा है कि ''आपका तआमे निस़्फ़ुन्नहार यानी ज़ोहराना(अपरान्ह भोजन) मेरे ग़ुर्फ़एٔ अतहर में आपका मुंतज़िर है, आप तनावुल फरमा लें, कलीद बाब के ऊपर है।'' यह साहब कलीद बाब के ऊपर है।'' का अर्थ न समझ सके और ... उनकी ज़बान्दानी का एक और वाक़िआ याद आ गया है वह भी सुन लीजिए। एक बार उस्ताद महोदय को एक आवेदन के लिए Income Certificate की ज़रूरत थी, जिसके लिए अपने वालिद मोह़तरम को लिखा कि ''सनद-ए-आमदनिया का अक्स इरसाल कर दीजिये।'' नतीजा ढाक के वही तीन पात। वह यह जुमला समझने से क़ासिर रहे और यह दर्ख़ास्त देने से।

इत्तेफ़ाक़ से उस्ताद और शागिर्द दिल्ली में एक प्रजेक्ट पर साथ ही काम कर रहे थे। एक दिन उस्ताद बार बार अपनी तिशनगी बुझाने जा रहे थे। नाचीज़ ने अर्ज़ किया कि आप इस तरह कब तक तिशनगी बुझाते रहेंगे? तशफ़्फी के लिए आबख़ोरा(गिलास) साथ रखना चाहिए। इरशाद हुआ कि '' ससे भी सेरी नहीं हो पाती ऐसी तिशनगी बुझाने के लिए मज़रूब(घड़े) की ज़रूरत है।''

महोदय को पुरानी दिल्ली से विशेष लगाव है। जब भी फ़ुर्सत का समय होता है और छात्र जीवन में फ़ुर्सत का समय कब नहीं होता? मौक़े को ग़नीमत जानकर पुरानी दिल्ली रवाना हो जाते हैं। एक बार उन्होंने जामा मस्जिद इलाक़े के एक दुकानदार से ''ज़ेरे जामा'' मांगा, दुकानदार समझने में नाकाम रहा। यह भड़क उठे और कहा "मीर और ग़ालिब के शहर में रहते हैं और ज़ेरे जामा नहीं समझते" बहरहाल दुकानदार उनकी नाराज़गी से जो कुछ समझ सका, वह उनके सामने पेश कर दिया। उनकी शराफ़त ने वहीं देखना गवारह न किया और जब कमरे पर लाए तो अफ़्सोस कि पहन न सके। उस्ताद की पुरानी दिल्ली की मुहब्बत ने छात्रावास में कई हासिद(ईर्ष्यालू) पैदा कर लिए हैं। उनकी इस ख़सलत(आदत) से जलकर किसी दिल जले ने रमज़ान के महीने में हॉस्टल मेस में एक सेह-गज़ला पेस्ट कर दिया, जिसका मतला था:

है दिल्ली-ए-क़दीम में इक हुस्न बेनज़ीर
जिस ने किया है हज़रते मुश्फ़िक़ का दिल असीर

सेहरी के समय लोगों ने देखा और मुश्फ़िक़ साहब की शरीफ़ुन्नफ़सी को देखते हुए कहा कि यह न जाने किस नामाकूल, बदअंदेश, बदज़ात, बदतमीज़, बदतहज़ीब, बदकिरदार का काम है। ज़ाहिर है सेह गज़ले का शाएर भी वहीं था। इसलिए अगली सेहरी में फिर एक दो गज़ला चस्पाँ पाया गया, जिसका मतला था:

मियां मुश्फ़िक़ की वकालत जो कर रहे हैं नसीम
कोई उनसे पूछे, आता है अलिफ़ बे जीम

लाचार हो कर मुश्फ़िक़ साहब ने भी जवाब चस्पाँ किया, जिसका मतला थाः

मुश्फ़िक़ की ज़ात इश्क़ व मुहब्बत से दूर है
तहज़ीब से लगाव है, क्या यह क़ुसूर है?

इस जवाब का चस्पाँ होना था कि एक मार्का-ए-ग़ज़ल खड़ा हो गया और रोज़ाना जवाब दर जवाब चस्पाँ होने लगे लेकिन शाएर का पता लाख कोशिशों के बावजूद भी मुश्फ़िक़ के हितैषी न कर सके। यह सिलसिला जब तूल पकड़ने लगा तो इस क़लमी जंग से तंग आकर एक सरफिरे ने चस्पाँ कियाः
बाउले करने लगे हैं आजकल कुछ शायरी
और इसी को वह समझते हैं तिलिस्मे सामरी

लफ़्ज़ के ज़ेर-व-ज़बर से कुछ नहीं आगाह यह
शेर के अवज़ान से खाली है इनकी टोकरी

काम कुछ ऐसा करो कि सुर्ख़रूई जग में हो
आप भी मशहूर हों और क़ौम होवे फ़ाख़री

तब कहीं जाकर यह क़लमी जंग ख़त्म हुई।

एक बार मुश्फ़िक़ साह़ब का किसी काम से मुरादाबाद जाने का इत्तेफ़ाक़ हुआ। नफ़ासत पसंद तबीयत, भारतीय यात्रा की सुविधाओं से आनन्दित न हो सकी। मजबूरन उन्हें एक परिचित के यहां क़याम करना पड़ा, जिन साहब के यहां उन्होंने क़याम किया था, हुस्ने इत्तेफ़ाक़ से बाप और बेटा दोनों शाएर थे। हुज़ूर की तबीयत को देखते हुए बेटे ने पूछा! आप खाने में क्या पसंद फ़र्माएगे? मुश्फ़िक़ साह़ब ने कहा कि तबीयत खाने पर बिल्कुल आमादा नहीं है, लेहाज़ा फ़क़त़ ''शुल्ला'' पकवा दीजिये। साह़बज़ादे की समझ में ''शुल्ला'' न आसका तो जाकर पिता श्री से पूछा ''शुल्ला'' क्या बला है? वह भी समझने में नाकाम रहे। उन्होंने आकर ख़ुद दरयाफ़्त किया। जनाब ने फिर वही दोहराया ''शुल्ला'' अब दोनों बाप बेटे एक दूसरे को आश्चर्य से देखने लगे और एक साथ पूछा यह ''शुल्ला'' क्या बला है? मुश्फ़िक़ साहब! चीं ब जबीं होते हुए बोले ''खिचड़ी'' एक बार हॉस्टल मेस में खाना खाते हुए उन्होंने कहा कि ''आज का जोग़राद काफ़ी अच्छा है।'' उनके दोस्त जो उनके रूममेट वा क्लासमेट थे, आश्चर्य से प्लेट की ओर देखने लगे कि यह कौन सी नई चीज़ खाने में आ गई और जब समझ में नहीं आया तो पूछा, ''यह किस चिड़िया का नाम है? ''चिड़िया का नहीं जनाब! खाने की चीज़ का नाम है। आप लोग तो न जाने क्या पढ़ते हैं? इतना भी नहीं जानते, और फिर धीरे से कहा, दही।

दूसरों की क्या बात है आज तक ख़ुद शागिर्द ने भी उस्ताद को कभी पाठ्य क्रम या साहित्यिक किताब पढ़ते हुए नहीं देखा है। उनके अध्ययन में रहने वाली किताबें हैं: नूरुल्लुग़ात, फरहंगे आसिफ़िया, लुग़ाते किशोरी, इल्मी उर्दू लुग़त, फरहंगे आमिरा और जदीद फ़ारसी उर्दू लुग़त आदि। यही कारण है कि जनाब दूसरों के ज़ेहन को तख़्त-ए-मश्क़ (श्यामपट) समझकर उनपर भाषा के नए नए शब्द लिखते रहते हैं। उनके इस प्रयोगात्मक कार्य के कारण कुछ लोग उनकी ज़बानदानी के दुश्मन हो गए हैं। लेहाज़ा ऐसे लोगों को जब भी मौक़ा हाथ आता है वह मुश्फ़िक़ भाई को ज़रूर कुरेदते हैं। इसी गिरोह के एक स़ाह़ब हॉस्टल से निकल रहे थे और मोहतरम प्रवेश कर रहे थे, आमना सामना होते ही हुज़ूर ने ख़ैरियत दर्याफ्त की और पूछा तशरीफ़ कहाँ जा रही है? निकलने वाले ने कहा कि ''मनक़ल'' खरीदने। इत्तेफ़ाक़ से हुज़ूर के ज़ेहन में इस शब्द का अर्थ नहीं था। इसलिए षड़यंत्रकारी सफल रहा। मुश्फ़िक़ साहब एक सप्ताह तक शब्दकोश से अपनी दुश्मनी निभाते रहे लेकिन विजयी न हो सके। आख़िर एक दिन चार-व-नाचार उन साहब से बोले कि आप ने जान बूझकर मुझे परेशान करने के लिए उस शब्द का प्रयोग किया था? मैं तभी से देख रहा हूँ किसी शब्दकोश में मिलता ही नहीं। मुझे सबसे पहले यह बताएँ कि वह शब्द किस भाषा का है? जनाब अरबी भाषा का शब्द है। मुश्फ़िक़ भाई ने कहा कि पर वह तो ''अलक़ामूसुलजदीद'' में भी नहीं मिला। ख़ैर छोड़िए! अब उसका अर्थ बता दीजिये। उसका अर्थ ''अँगीठी'' है। माफ़ कीजिएगा मेरा मक़स़द आप को परेशान करना क़तई नहीं था। आपने पूछा तो मुंह से बेसाख़्ता ''मनक़ल'' निकल गया। मुश्फ़िक़ साहब ने विनम्रता व्यक्त करते हुए कहा इसमें माफ़ी की क्या बात है? इससे मेरे शब्द भंडार में वृद्धि हुई है। इसके लिए तो मुझे आप को धन्यवाद कहना चाहिए।

मेरा दावा है कि आतिथ्य में इस समय कोई उनका हमसर नहीं हो सकता। क्योंकि जिस तरह से वह अपने मेहमानों की ख़ातिर और दिल बहलाने का ध्यान रखते हैं, बड़े से बड़ा मेहमान नवाज़ नहीं कर सकता। अपने आतिथ्य की मिसाल क़ायम रखने के लिए हर साल हॉस्टल के वार्षिक समारोह में किसी न किसी ख़ास आदमी को ज़रूर आमंत्रित करते हैं और इसके लिए उनकी निगाह किसी असर व रुसूख़ वाले पर ही केंद्रित होती है। अतिथि पर अपनी सज्जनता, सभ्यता और उसका दिल बहलाने की ख़ातिर कोई कसर उठा नहीं रखते। इस संबंध में अतिथि की तबीयत का ख़ास ख्याल रखते हैं और इसका तरीक़ा यह अपनाया है कि अपनी कही हुई अब तक की सभी अप्रकाशित ग़ज़लें व नज़्में रात्रिभोज कराने से पहले सुना कर ही दम लेते हैं। अब आप ख़ुद ही कल्पना करें कि उस अतिथि पर क्या बीतती होगी, जो उनकी दावत के दाम में आ जाता होगा और उसकी स्थिति का अनुमान लगाएँ कि सुनता है तो सुना नहीं जाता और यदि सुनने से इनकार करता है तो डिनर से वंचित होने की पूरी संभावना है। हाय! बेचारा अतिथि! कुआं मेरे पीछे तो खाई मेरे आगे।

यह बात पूरे कैम्पस में मशहूर है कि जिस व्यक्ति ने भी उनकी संगत में किसी तरह से दो घंटे बिता लिए, बरोज़े हश्र(प्रलय के दिन) उसे बिना किसी हिसाब किताब के स्वर्ग में जाने का सौभाग्य प्राप्त होगा। इस का मामला कुछ यूं है कि जब वे बातचीत में मगन होते हैं तो लगता है कि गति अवरोधक पर चल रहे हैं और जैसे ही महोदय कुछ फ़रमाना चाहते हैं शब्द नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। फिर वह अपनी छड़ी उठाते हैं और उनके (शब्दो) पीछे निकल पड़ते हैं। अब एक एक को मारते जाते हैं और आपके सामने ह़ाज़िर करते जाते हैं। एक बार उनके इस शागिर्दे रशीद ने उनसे पूछा कि ह़ुज़ूर आप इतना ठहर ठहर कर क्यों बोलते हैं कि सामने वाला ऊब जाता है?

आदर्णीय उस्ताद ने कहा (जवाब से पहले चेहरे पर कई तरह के भाव आए और गए फिर माथे पर बल पड़ गए) क्या करूँ? कंबख़्त शब्द साथ ही नहीं देते।

बुज़ुर्गवार! आपकी ज़बानदानी का डंका बज रहा है, फिर भी आपका जे. आर. एफ. नहीं हुआ? यह हमारे लिए कितनी हैरानी की बात है? शागिर्द ने पूछा।

 उस्ताद ने दो बार सर पर हाथ मारा और तवानाई ज़ाहिर करते हुए बोले ''क्या बताऊँ, कुछ कह नहीं सकता, सिवाय इसके कि ''नक़िबाज़े ज़ेहन (दिमाग़ी क़ब्ज़) का शिकार हो गया।''

आदर्णीय ने कुछ शब्दों के उर्दू विकल्प भी बनाए हैं, जिनका उपयोग धुआँधार करते हैं, चाहे कोई समझे या न समझे। उदाहरणार्थः आरक्षण के लिए ''तह़फ़्फ़ुज़े नशिस्त'' Tape Recorder'' के लिए आवाज़ कश ''Two in One'' के लिए दो दर यक और Roommate के लिए ''हम उताक़"। इस तरह के और भी कई विकल्प ह़ुज़ूर ने बनाए हैं और दास को उपयोग का पूरा अधिकार है, लेकिन उनके गिनावाने का मौक़ा यह नहीं।

उस्ताद को संगीत से विशेष लगाव है, जिसके लिए भोपाल घराने से बाक़यदा तर्बियत हासिल की है। उनके नज़दीक आलाप के लिए समय की कोई क़ैद नहीं है। इसलिए वक़्त बेवक़्त जब भी जी चाहता है, आलाप लेते रहते हैं और पड़ोसी सोने के बजाय आलाप से आनन्दित होते रहते हैं। बुज़ुर्गवार मुशायरों में जब अपनी गज़ल तरन्नुम से सुनाते हैं तो अभ्यस्त श्रोता ही अपने होश पर नियंत्रण रख पाते हैं, बाक़ी मदहोश हो जाते हैं या ऊँघने लगते हैं, भगवान ही जाने!

ख़ाकसार इस बात का उल्लेख कर चुका है कि महोदय की तबीयत आधुनिकता से ओत प्रोत है मगर यह आधुनिकता वहीं तक सीमित है जहां तक ​​उन पर बार न आए वरना उनसे बढ़कर रूढ़िवादी शहर दिल्ली में नहीं। पत्नी के लिए बेहद सतर्क रहते हैं। कार्यालय जाते हुए बाहर से सिडुई ताला (पुराना और ज़ंगलगा) लगा कर जाते हैं और वापस आते ही बेगम से पूछते हैं, कोई आया तो नहीं था?

उनके व्यक्तित्व का परिचय तब तक अधूरा माना जाएगा, जब तक कि उनके साथ उनकी साइकिल, छतरी और आहनी(लोहे) बैग का उल्लेख न कर दिया जाए वरना परिचय कराने वाले की जानकारी अधूरी समझी जाएगी। बुज़ुर्गवार को दिल्ली के मौसम पर क़तई भरोसा नहीं है, जिसकी वजह से छतरी हर मौसम में साथ रखते हैं। धूप में इसका इस्तेमाल घोरपाप से कम नहीं लेकिन छाया में इसका उपयोग आवश्यक हो जाता है। उनकी साइकिल कोई ऐसी वैसी या 'पतरस' की साइकिल की तरह नहीं है बल्कि यह एक विशेष प्रकार की साइकिल है, जिसे आप एक बार देख लें तो बीस साल बाद भी देखते ही तुरंत कह उठेंगे: अमुक व्यक्ति की है। इस साइकिल में आगे पीछे कुछ अतिरिक्त अंगः जैसे बिस्तर बंद के साथ एक विशिष्ट प्रकार का दाईं तरफ़ लटकता हुआ जाली दार संदूक्चा लगा हुआ है, जिसमें कम से कम एक अंग्रेजी उर्दू शब्दकोश और नूरुल्लुग़ात की जिलदें हमेशा मौजूद रहती हैं। हैंडिल के आगे लगी टोकरी में मरातुश्शेर, लुग़ाते किशोरी और निजी बयाज़(डायरी) का होना ज़रूरी है। कब किस से, किस शब्द के दर-व-बस्त पर जंग छिड़ जाए, क्या पता? इस लिए सनद पेश करने के लिए कुछ असासा तो साथ होना ही चाहिए।

आहनी बैग से मुराद ऐसे बैग से है, जो दिल्ली की बसों में सफ़र करते समय यात्रियों की रेल पेल में, अगर यात्री आगे और बैग पीछे या यात्री यहां बैग वहाँ हो जाए और जैसा कि अक्सर होता रहता है तो बैग निःस्वार्थ होकर पूरी शक्ति से खींच लिया जाए। चाहे लोगों को ख़रोचें आएँ या भाड़ में जाएँ पर बैग को ख़राश न आए। ''मैं ख़ुश मोरा अल्लाह ख़ुश''

इन सभी नानाप्रकार की विशेषताओं के कारण मुश्फ़िक़ भाई के बारे में कैम्पस में दो बातें मशहूर हैं। पहली यह कि वह पंद्रहवीं सदी के जीव थे मगर आकाशीय रजिस्टर में हेर फेर की वजह से उनका आगमन धरती पर चार सदी बाद हुआ, द्वितीय यह कि जिस किसी ने भी कभी भूलचूक से भी उनसे एक चाय पी है, उसका नरक में जाना निश्चित है। इसलिए कि ऐसे निराले व्यक्तित्व के लोग सदियों में पैदा होते हैं इस लिए हमें उनका सम्मान करना चाहिए वरना हम पर दैवी आपदा आएगी।



नोट: यह लेख मार्च 2001, शगूफ़ा, हैदराबाद, में प्रकाशित हो चुका है.


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