اتوار، 10 مارچ، 2013

सर मुंडाते ही ...पड़े


सर मुंडाते ही ...पड़े

शाम का वक्त है और मैं अपने आंगन में लेटा, अपने आप में गुम,  सुर और ताल के साथ गुनगुना रहा हूँ:
मेरी ख़ब्तुलहवासी1 का बदल कुछ हो नहीं सकता
करैला आम पर चढ़कर भी मीठा हो नहीं सकता
अगर सोहबत शरीफ़ों की भी मिल जाए तो क्या हासिल
कि गधा लाख कोशिश कर ले, घोड़ा हो नहीं सकता

यह सुरख़ुशी2 और सरमसती का आलम मुझ पर तभी से तारी है, जब से बोर्ड के इम्तेहान ख़त्म हुए हैं। चूँकि अब छुट्टियां खत्म होने वाली हैं और बोर्ड के परिणाम आने ही वाले हैं, इसलिए कभी कभी सोचता हूँ कि भगवान न करे कहीं कुछ गड़बड़ हुआ तो क्या होगा? फिर यूनीवर्सिटी का ध्यान आते ही मन में नई नई उमंगें सर उठाने लगती हैं. क्योंकि हमने जो कुछ यूनीवर्सिटी के बारे में सुना है, उन्हें लेकर मन में तरह तरह की गुदगुदाहट होती रहती है। यूनीवर्सिटी ऐसी होगी, वैसी होगी, छात्रावास जीवन में आज़ादी ही आज़ादी होगी। न घर का काम और न ही यहां की तरह वहाँ कदम कदम पर कोई टोकने वाला होगा। उफ़! क्या दिन होंगे? यह सोच कर दिल झूम झूम उठता था। बस उस समय ऐसा लग रहा था कि आज़ादी और खुशिया दामन फैलाए हमारा इंतेजार कर रहे हैं। वे दिन अब दूर नहीं जब आसमान हमारे कदमों में होगा और हम हर दिन एक नई दुनिया की सैर करेंगे।

बहरहाल कुफ़्र टूटा खुदाखुदा करके! बोर्ड के परिणाम भी आ गए और हमने यूनीवर्सिटी की आंतरिक परीक्षा में सफलता भी हासिल कर ली। उस समय ऐसा लग रहा था कि यूनीवर्सिटी से दावतनामा नहीं आया है बल्कि अंधे के हाथ बटेर लग गई है। फिर क्या था ? बस यूं समझिये कि बिल्ली के भाग से छींका टूटा. ख़यालों की फ़ाख़ता उड़ने लगी, उमंगों ने आसमान पर कमंदीं डालीं और जोश और आकांक्षाओं का एक अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया। साथ ही यह विचार भी आया कि चलो इस जल्लादखाने किसी तरह जान तो छोटी।
यूनीवर्सिटी पहुंचे प्रवेश की प्रक्रिया पूरी की। यहाँ प्रवेश के साथ ही छात्रावास भी मिल गया, इसलिए किसी प्रकार का कोई टेनशन नहीं रहा। कुछ नए दोस्त बनाए और शाम के समय थोड़ी बहुत यूनीवर्सिटी की सैर की और ढाबे पर जा कर चाय पी। इसका आनंद कुछ ऐसा था कि बयान नहीं किया जा सकता। सब बहुत सुखद मूड में थे। अगले दिन पास के बाजार की तफ़रीह और कुछ जरूरी सामान ख़रीदने का कार्यक्रम बनाया गया और सब अपने अपने कमरों को रवाना हो गए। अगले दिन निश्चित कार्यक्रम के अनुसार हम पास के बाज़ार गए। बाज़ार तो साधारणतया थोड़े बहुत अंतर के साथ भारत में एक जैसे ही होते हैं पर इस शहर का तो आलम ही कुछ और था। क़ुदरत की सुन्दरता और कला पर ईमान लाना वैसे ही लग रहा था जैसे सुन्तन के बाद फ़र्कज़ का अदा करना। ऐसा लग रहा था कि हरहरपल एक बर्छी जिगर के पार उतरती जा रही है। उफ़ यह क़यामतें! सर से गुजर जाएंगी क्या? जिस्म नक़ाब में लेकिन जिस्म का खूबतरीन और हसीनतरीन हिस्सा वार करने को आज़ाद, वल्लाह!
जो भी गुज़रा उसी ने लूटा है
 दिल भी अपना पुरानी दिल्ली है
कवियों ने आंखों के बारे में क्या कुछ नहीं कहा! झील, समुद्र, शराब खाना, बरछी, कटार, तलवार और यह वार करने को आज़ाद। कोई संभले तो कहाँ तक संभले? हाय:
इस सादगी पे कौन न मर जाये ए ख़ुदा
 लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं
क़ुदरत के हुसीनतरीन शाहकारों का दृष्टिगत अवलोकन करते और उनकी तारीफ़ें करते हुए, दुनिया की सभी चिंताओं से मुक्त, छात्रावास आए, उफ़! क्या मूड था उस वक़्त? कुछ कुछ शायरी की तरफ़ भी तबीयत मायल थी और कुछ तुकबंदियाँ भी चल रही थी. जैसे:
क्या बताऊँसोच कर क्या आया था
ढूँडता राई था परबत पाया था
लग रहा था मुझको ऐसा उस घड़ी
हाथ में बच्चे के गोया फुलझड़ी
इसी कैफ़ और मस्सती के मूड में कुछ दिन बीते। उसके बाद शायद शनिवार का दिन था और हम हस्बे मामूल हॉस्टल पहुंचकर डाईनिंग हाल गए, खाना खाया और अभी बाहर निकलने की सोच ही रहे थे कि एक वरिष्ठ (Senior) ने कहा! कहाँ? कमरे! मासूमियत के साथ मैने कहा। कमरे कहां? पहले इधर तो तशरीफ़ ले चलिए! बुज़ुर्गवार ने फ़रमाया। शरीफ़ों की तरह बंदा उनके साथ हो लिया। ज़रा आगे बढ़ा तो देखता हूँ कि कुछ लोग कुर्सियों पर बैठे हैं और दर्जनों लोग खड़े हैं। नाचीज़ भी उन्हें दर्जनों में हम बन कर खड़ा हो गया। यहां सब एक दूसरे को असमंजस से देख रहे थे कि क्या होने वाला है? शायद किसी ने कोई गलती की हो, उसी बारे में कुछ जाँच पड़ताल हो। इतने में बैठे हुए साहेबान में से एक साहब ने कड़कती आवाज़ में घोषणा की कि "चलो, धुर्रे लगाओ"। धुर्रे लगाओ,  यह क्या होता है? कभी सुना नहीं। अभी हम सब सोच ही में थे कि एक ने बहुत मासूमियत से दबी ज़बान में पूछा, धुर्रा लगाना क्या होता है?" अभी बताते हैं बेटा! अभी बताते हैं। ऐसा समझोगे कि उम्र भर नहीं भूलोगे"। अब कि बुज़ुर्गवार के तेवर से अन्दाज़ा हुआ कि हो न हो कुछ गड़बड़ ज़रूर है। इतने में एक साहब उठ खड़े हुए और कहने लगे "चलो बोलो! हम 98 के धुर्रे हैं। ज़ोर ज़ोर से बोलते हुए यहीं से शुरू करो और पूरी फ़ील्ड का चक्कर लगा कर आओ। अगर किसी ने आना कानी की तो फिर समझ लेगा! समझ गए ना! हाँ! तो फिर चलो, शुरू हो जाओ"।

यह एक ऐसा काम था जो बिल्कुल अप्रत्याशित और आकस्मिक आफ़त की तरह ऑन पड़ा था। ऐसा लगा जैसे हम पर घड़ों पानी पड़ गया हो। वह सपनों का महल जो हमने पिछले कुछ दिनों में बनाया था, शेख़ चिल्ली के महल की तरह ढेर हो गया। अंधे के हाथ की बटेर छोटती महसूस होने लगी। सभी मातूब जो हाथ आए थे चार व नाचार, बे यार व मददगार, बेहिस और बादिले नाख़ास्ता एक तरफ को चल पड़े लेकिन किसी के भी मुंह से वह वाक्य नहीं निकल रहा था, जिसका कि हुक्म किया गया था। इतने में एक गरज्ती हुई आवाज़ आई "लगाव बे" अब शनैः शनैः आवाज़ आनी शुरू हुई तो वही आवाज़ फिर सुनाई दी। "ज़ोर ज़ोर से, बुलंद आवाज़ से"। अब आफ़तज़दों की टोली धुर्रे भी लगाने लगी और दौड़ने भी लगी।

अब वह घर जिससे बेज़ार रहते थे, महल लगने लगा। डाँट में प्यार झलकने लगा। उस समय जो विचार मन में आ रहे थे उनका साराँश यह है कि लाख का घर ख़ाक में मिल गया। उड़ती चिड़िया क़ैद हो गई, विचारों की फ़ाख्ता अपने पर समेटने लगी। अंग्रेज ज़ालिम यह लानत छोड़ कर गए हैं, यह पढ़ाई है कि जिहालत और हम लोग यहां पढ़ने के लिए आए हैं या धुर्रे लगाने? वाह री किस्मत! दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए? खैर! कुफ़्र टूटा खुदा खुदा करके। किसी तरह मैदान का चक्कर पूरा हुआ और मातूब वहीं जा खड़े हुए, जहां से चले थे। कुछ नर्म, कुछ गर्म और कुछ खट्टी कुछ मीठी भी सुन्नी पड़ी। कुछ को दोबारा चक्कर लगाने का हुक्म हुआ। जो बा़क़ी बचे उनसे सवाल व जवाब होने लगे। क्या नाम है? कहाँ से आए हो? मशग़ला क्या है? उसके बाद उन्हीं जवाबात से सवाल पैदा किए जाते, जिससे महफ़िल ठहाकों से गूंज उठती। एक ने कहा कि उसे अनुवाद से दिलचस्पी है तो उससे कहा! चलो इस sentence का अनुवाद करो। Marry was killed behind the bush" मेरी झाड़ी के पीछे मारी गई"। इतना कहना था कि क़हक़हे का ज्वालामुखी फूट पड़ा। एक जो ज़रा स्मार्ट बनने की कोशिश कर रहा था, उसकी तरफ़ विशेष कृपा की गई और "तू बड़ा स्मार्ट बन रहा है, चल यह माचिस की तीली ले और बरामदे की लंबाई और चौड़ाई माप कर बता"। सबसे पहले तो यह समझ में आया कि यह मजाक़ है, कहीं माचिस की तीली से लंबाई और चौड़ाई मापी जाती है? भला यह भी कोई करने का काम है कि तीली से  दृष्टि की सीमा तक फैले हुए बरामदे की लंबाई मापी जाए। बंदा अभी इसी आग पीछ में था कि "क्या बे!" की कड़कती हुई आवाज़ आई और साथ ही यह भी कि "उठना पड़ेगा क्या?" अब कि मुझे मौके की नज़ाक़त का अंदाज़ा हुआ और मजबूर ने वह उपकरण ले लिया, जिससे कि लंबाई माप कर बतानी थी। अब तो मुझे काटो तो ख़ून नहीं! या अल्लाह! इस आफत से जान कैसे छोटेगी? माचिस की तीली से बरामदे की लंबाई मापते मापते मुझ पर न जाने कितनी क़यामतें गुजर गईं। कितनी बार यह भी भूल गया कि तीलियाँ कितनी हुईं? कई बार तो यह भी भूल गया कि मैं कौन हूँ? मैं हूँ भी या नहीं? यह भी विचार आया कि फ़रहाद ने कोहकनी की हो तो की हो मगर इतनी मुसीबत का सामना तो उसको भी नहीं करना पड़ा होगा और न ही मजनूँ पर इतनी सख़्त गुज़री होगी। पिछली सारी बातें फिल्म की तरह आंखों के सामने नृत्रय कर रही थीं। दिल ही दिल में लानत मलामत करता जा रहा था कि सर्वर डंडा की बात याद आ गयी कि "चुप हो जाओ सालो वरना तख़ल्लुस घुसेड़ दूंगा'' इनकी तो ... जी में आया कि सर फिरूँ का सर तोड़ दूं और घर भाग जाऊं मगर दाएं बाएं निगाह दौड़ाई तो देखा कि सभी मातूब, बंदे ही की तरह के अनावश्यक कार्यों में लगे हुए हैं, इसलिए दास शांत ही रहा। इतने में एक आवाज़ आई "अरे ओए खान साहब! इधर आ जाइए, यह काम आपके बस का नहीं है"। जी ही जी में ख़ुश हुआ चलो जान बची और चेहरे पर जरा सी प्रसन्नता लिए फिर मातूबख़ाने के दर पर हाज़िर हुआ कि चलो किसी ने दया की है, लगता है अब छुटकारा मिल जाएगा। अभी मैं यह सोच ही रहा था कि इतने में एक ज़ालिम ने कहा "मुस्कुरा रहा है, चल बता! body में कितने छेद हैं? चार!" बेसाख़ता ज़बान से निकल गया। इतने में ज़ालिमों के सरग़ना ने कहा! "उंगली डाल डाल बता! कहाँ कहाँ हैं?" बंदे ने आदेश के पालन में जैसे ही उंगली कान में डाली वैसे ही ध्यान कहीं और पहुंच गया और हाथ वहीं का वहीं रुक गया कि हाय! अब क्या होगा? इतने में सरगना ने कहा "क्या हुआ बेटा, क्या हुआ? आगे बढ़ो". इसके आगे जो कुछ हुआ वह बताऊँगा तो मज़ा किरकिरा हो जाएगा। इसलिए माफ़ ही रखिए।

भोर के समय कमरे पहुंचा तो चादर ओढ़ के खूब रोया, या ख़ुदा इसे शिक्षा कहते हैं? तो सज़ा और क़यामत को क्या कहेंगे? उस समय सभी चीजें उल्टी मज़र आने लगीं। शब्दों के अर्थ बदल गए, घोड़ा गधा और भिंडी चिचिंडा नज़र आने लगी। सच है, वहशत में चीजें उल्टी ही दिखाई देती हैं। ग़ालिब ने सच ही कहा है।
वहशत में हर इक नक्शा उल्टा नज़र आता है
 मजनूं नज़र आती है लैला नज़र आता है

अपनी हालत पर आंसू बहा ही रहा था कि ख्याल आया कि न जाने उस बेचारे का क्या हाल है? जिसको ज़ालिमों ने साड़ी पहनाया था फिर निकाह का ख़ुतबा और जलवा भी करवाया और उसके बाद के चरण! उफ़! तौबा तौबा! यूनीवर्सिटी  में यही सब होता है या इसके अलावा भी कुछ होता है। इसलिए बंदा उस दिन से आज तक अपने इस ख़याल पर क़यम है कि यूनीवर्सिटी  में पढ़ाई लिखाई के अलावा दुनिया के सभी कार्यों की बेहतरीन तरबियत होती है।

इसी हालत में कब नींद आ गई, भगवान जाने! आँख खुली तो क्लास की धुन, आनन फानन तैयार हो, विभाग पहुंचे तो देखा कि एक नई मुसीबत वहाँ हमारा इंतेज़ार कर रही थी। क़ुदरत के हसीन तरीन शाहकार हमारा इंतेज़ार कर रहे थे। कक्षा के बारे में पूछने परसिर्फ इतना पता चला कि एक सप्ताह तक तो हम लोग लेंगे, उसके बाद का पता नहीं। करीब था कि मैं ग़श खाकर ज़मीन पर आ रहता लेकिन एक सहपाठी ने संभाल लिया। इस दौरान आफ़तों की टोली में से एक ने पूछा। "अच्छा! एक्टिंग (acting) करता है? " दूसरी ने पूछा, ''actor हो?'' मैंने कहा! "नहीं". "अच्छा! फिर क्या करते हो?" तीसरी ने पूछा। यह सवाल बंदा सुनने से रह गया और रात की फिल्म आँखों के सामने घूम गई और सोचा! बेटा जो हजामत रात को बनने से रह गई है, वह यहां पूरी हो जाएगी। "क्या करते हो? अभी तुमने कुछ नहीं बताया!", "जी! मैंने चौंक कर कहा? जी में कवि हूँ". "तो फिर कुछ सुनाओ?"  इतना सुनना था कि मैंने झल्ला कर कहा:

कुछ मेरी ख़ब्तुलहवासी मुझको रास आई बहुत
कुछ दोस्त नुमा दुश्मनों ने की पज़ीराई बहुत
मसलेहत ले आई A 2 Z में मुझको खींच कर
वरना, ख़ुदकुशी करने को थीं और तरकीबें बहुत

दिल ही दिल में अफ़सोस कर रहा था कि कहाँ आ फंसे? हजामत बन रही थी और मैं सोच रहा था कि वाह री किस्मत! सर मुंडाते ही ओले पड़े, वह भी पटा पट.

नोट: यह लेख "ज़राफ़्त" बेंगलूर अंक मार्च. अप्रैल 2009 में और "अदबी महाज़", कटक तिमाही में जनवरी. मार्च 2011 में प्रकाशित हो चुका है.

1.पागलपन, उन्माद. 2. मस्ती, एक तरह की सनक

کوئی تبصرے نہیں:

ایک تبصرہ شائع کریں

مختلف تہذیبوں میں عورت کی حیثیت

 مختلف تہذیبوں میں عورت کی حیثیت  یہودیوں میں: یہودی عورت کو آدم کے جنت سے نکالے جانے کا ذمہ دار سمجھتے تھے۔ ان کے نزدیک عورت حیض کے دوران ن...